गोविंद साहू : दीपोत्सव जो न सिर्फ घरों को, बल्कि दिलों को भी रौशन करती है। आज हम बात करने जा रहे हैं छत्तीसगढ़ के बालोद जिले के ग्रीन कमांडो वीरेंद्र सिंह की जिन्होंने पिछले कई वर्षों से प्रकाश के इस पर्व को को एक नए अर्थ में पूरे समाज मे बांट रहे हैं। हर वर्ष वे स्कूली बच्चों को मिट्टी के दीये भेंट करते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी को सिखाया जा सके कि असली रौशनी वही है जो प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना जगमगाती है।

ग्रीन कमांडो वीरेंद्र सिंह जी कहते है कि मिट्टी के दीये केवल परंपरा का प्रतीक नहीं, बल्कि पर्यावरण प्रेम का प्रतीक भी हैं। दीपावली के मौके पर जब बाजारों में प्लास्टिक और केमिकल रंगों से बने दीयों की भरमार होती है, तब मिट्टी के ये छोटे-से दीये हमें याद दिलाते हैं कि सादगी में भी सुंदरता है और प्रकृति के साथ जुड़ाव ही सच्ची सम्पन्नता है।

वीरेंद्र सिंह का यह प्रयास हमें सिखाता है कि एक छोटा-सा बदलाव भी बड़ा असर ला सकता है, यदि उसमें भावना और जिम्मेदारी का दीप जलाया जाए। इन मिट्टी के दीयों का सबसे बड़ा संदेश है “कम प्रदूषण, अधिक उजियारा।” ये दीये प्लास्टिक या बिजली से चलने वाले कृत्रिम दीपों की तुलना में वायु प्रदूषण नहीं फैलाते। ये पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल हैं, जो जलने के बाद फिर से मिट्टी में मिल जाते हैं, प्रकृति की गोद में लौट आते हैं। इस प्रकार, दीपावली की खुशी धरती माँ के चेहरे पर भी मुस्कान ले आती है।

गौरतलब है कि, साथ ही, मिट्टी के दीयों का उपयोग स्थानीय कारीगरों की आजीविका को भी रोशन करता है। ये दीये न केवल पर्यावरण की रक्षा करते हैं, बल्कि उन हाथों को सम्मान भी देते हैं जो मिट्टी से सपने गढ़ते हैं। वीरेंद्र सिंह बच्चों को यह भी समझाते हैं कि हर दीया किसी कलाकार के परिश्रम की चमक लिए होता है, और जब हम उन्हें अपनाते हैं, तो हम आर्थिक आत्मनिर्भरता और लोककला दोनों को बल देते हैं।

आओ, इस दीपावली एक वादा करें हम खुद मिट्टी के दीये जलाएंगे और दूसरों को भी प्रेरित करेंगे। जब बच्चे, शिक्षक, और अभिभावक इस अभियान में शामिल होंगे, तब यह सिर्फ एक त्योहार नहीं रहेगा, बल्कि एक पर्यावरणीय क्रांति बन जाएगा। क्योंकि जब एक दीया जलता है, तो केवल अंधेरा नहीं मिटता मन, समाज और धरती सब जगमगा उठते हैं।

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